दरअसल बिहार में वर्ग संघर्ष और सियासत का पुराना नाता रहा है. इतिहास पर नजर डालें तो स्वतंत्रता के पश्चात बिहार में जातीय या वर्ग संघर्ष का पहला रिकॉर्ड 1977 का मिलता है जब राज़धानी पटना के पास बेल्ची गांव में 14 दलितों की हत्या कर दी गई थी. आरोप कुर्मी समुदाय के लोगों पर लगे थे. इस घटना का राजनीतिक महत्व इस बात से समझ सकते हैं कि भूतपूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने हाथी पर चढ़कर बाढ़ से घिरे रहने वाले इस गांव का दौरा किया था. पटना जिले की इस घटना के बाद 1978 में भोजपुर जिले के दंवार बिहटा गांव में अगड़ी जाति के लोगों ने 22 दलितों की हत्या कर दी थी.
बिहार में शुरू हुआ जातीय संघर्ष का नया दौर
इसके दो साल बाद 1980 में फिर पटना जिले के पीपरी गांव में ही जातीय संघर्ष हुआ और पिछड़ी जाति के दबंगों ने 14 दलितों की हत्या कर दी. फिर 1987 में बिहार का सबसे बड़ा जातीय नरसंहार तब हुआ जब औरंगाबाद ज़िले के देलेलचक-भगौरा गांव में 1987 में पिछड़ी जाति के दबंगों ने कमजोर तबके के 52 लोगों की हत्या कर दी. इस घटना के बाद जातीय संघर्ष का नया दौर तब शुरू हुआ जब साल 1989 में जहानाबाद के नोही नागवान गांव में 1989 में हुई 18 लोगों की हत्या कर दी गई. पिछड़ी जाति और दलित वर्ग के लोगों के नरसंहार का आरोप अगड़ी जाति के लोगों पर लगा.होते रहे कत्लेआम और सियासत चढ़ती रही परवान
अब वह दौर भी आ गया जिसे पिछड़ा उभार का दौर कहा जाता है. इसी कालखंड में लालू प्रसाद यादव ने बिहार के मुख्यमंत्री पद की कमान संभाली थी. लालू यादव के सत्तासीन होने के बाद वर्ष 1991 में पटना के तिस्खोरा गांव और भोजपुर जिले के देवसहियारा गांव में 15-15 दलितों की गई. फिर तो जैसे बिहार में जाति आधारित खूनी खेल खुलेआम खेला जाने लगा. वर्ष 1992 में 12 फरवरी को गया जिले के बारा गांव में माओवादियों ने भूमिहार जाति के 35 लोगों को एक साथ मार डाला.
चलता रहा सामूहिक हत्याओं का शुरू हुआ सिलसिला
बारा नरसंहार क्रूरतम हत्याकांडों में से एक था क्योंकि माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) के सशस्त्र दस्ते ने एक नहर किनारे ले जाकर उनके हाथ-पैर बांधकर उनकी गला रेतकर हत्या कर दी थी. कहा जाता है कि जब एक व्यक्ति का गला रेता जा रहा था तो दूसरा व्यक्ति उसी के बगल में लेटा हुआ ठीक वैसे ही देख रहा था जैसे कसाईखानों में खस्सियां काटी जाती हैं.
उस दौर में जातीय संघर्ष का केंद्र बन गया था भोजपुर क्षेत्र
इस घटना के बाद तो जैसे बिहार में जातीय वैमनस्यता ने जड़ें जमा लीं. लोगों की पहचान उसके रंगों और वेशभूषों के आधार पर होने लगी. जातीय घृणा की ऐसी तस्वीर बनी कि बिहार की पहचान ही इसी एक आधार पर होने लगी. उस दौर में हर वर्ग में वर्ग भेद का जहर नस-नस में समा चुका था. खास तौर पर बिहार का भोजपुर क्षेत्र जातीय संघर्ष का केंद्र बन गया था.
बदला लेने की होड़ और जारी रहा कत्लेआम का दौर
बाद के चार वर्षों तक छिटपुट घटनाएं बड़े जातीय टकराव की दस्तक देती रहीं. वर्ष 1996 में भोजपुर के बथानी टोला गांव में दलित, मुस्लिम और पिछड़ी जाति के 22 लोगों का कत्लेआम किया गया. तब यही बात चर्चा में थी कि बारा गांव में माओवादियों द्वारा किए गए नरसंहार का बदला लेने के लिए इस घटना को अंजाम दिया गया.
शर्मसार होती रही मानवता और सियासत देखती रही तमाशा
वर्ष 1996 में बथानी टोला नरसंहार के एक साल बाद ही बाद बिहार का सबसे बड़ा जातीय नरसंहार हुआ. एक दिसंबर 1997 को जहानाबाद जिले के लक्ष्मणपुर बाथे गांव में सवर्णों द्वारा गठित रणवीर सेना ने 61 लोगों की हत्या कर दी. मारे गए लोगों में कई बच्चे और गर्भवती महिलाएं भी शामिल थीं. यह हत्याकांड को भी मानवतावादी सामान्य मूल्यों को भी काफी पीछे छोड़ चुका था और जघन्यतम नरसंहारों एक बन गया.
नरसंहार पर नरसंहार और बदनाम होता चला गया बुद्ध का बिहार
भगवान बुद्ध के ज्ञान की भूमि की पहचान अंहिसा के उपदेशों से बनी थी. बिहार को देश-विदेश में पुण्य भूमि के तौर पर भी लोग जानते हैं. लेकिन आधुनिक युग में इसकी पहचान नरसंहारों से होने लगी. बिहार अपने हिंसक कृत्यों के कारण बदनाम हो चुका था और वर्ग संघर्ष का दौर थम नहीं रहा था. इसी कड़ी में साल 1999 में बिहार में जातीय हिंसा की कई घटनाएं घटती रहीं.
सामूहिक हत्याकांडों की भेंट चढ़ते रहे दलित, पिछड़े, सवर्ण और…
वर्ष 1999 में जहानाबाद जिले के सेनारी में एक और बड़ा नरसंहार हुआ जिसमें अगड़ी जाति के 35 लोगों की एक साथ हत्या कर दी गई. तब यही बात सामने आई कि यह उन सामूहिक हत्याकांडों का बदला था जो इसी साल इससे पहले इसी जहानाबाद जिले के दो गांवों में किया गया था. गौरतलब है कि सेनारी नरसंहार से पहले शंकरबिघा गांव में 23 और नारायणपुर में 11 दलितों की हत्या कर दी गई थी और इसका आरोप सवर्णों पर लगा था.
जातीय घृणा की सियासत से बनते-बढ़ते चले गए वोट बैंक
इसके एक वर्ष बाद ही 2000 ईस्वी में औरंगाबाद जिले के मियांपुर में नरसंहार हुआ. 16 जून 2000 के इस सामूहिक हत्याकांड में 35 दलितों को मार डाला गया. कहा तो जाता है कि बड़े नरसंहारों का दौर यहीं थम गया, लेकिन बिहार में जातीय घृणा का मवाद नस-नस में जम चुका था. वर्ग भेद के आधार पर वोट बैंक बन चुके थे और सियासत अपने खूनी इरादों के साथ नरसंहारों पर अट्टहास कर रहा था.
सत्ता बदली तो सियासत बदली और विकास की ओर बढ़ चला बिहार
हालांकि वर्ष 2005 में सत्ता में बदलाव हुआ तो जनमानस का मिजाज भी बदला. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सूबे की कमान संभाली और बिहार को नई पहचान दिलाने की कवायद में जुट गए. पर सीएम नीतीश भी नरसंहार के दाग से बच न सके. 1अक्टूबर 2007 को खगड़िया जिले के अलौली में धानुक जाति के 12 लोगों की सामूहिक हत्या कर दी गई. हालांकि यह भी सच था कि इसके बाद जातीय संघर्ष में कोई नरसंहार नहीं हुआ था.
‘सुशासन’ को भी ‘दाग’ से नहीं बचा पाए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार!
मधुबनी की ताजा घटना ने सीएम नीतीश कुमार की इस उपलब्धि पर बट्टा लगा दिया क्योंकि एक साथ एक ही जाति के 5 लोगों की हत्या उनके शासनकाल में नहीं हुआ था. जाहिर है सियासत होनी थी, सो होने लगी. सत्ता को कोसने का सिलसिला विपक्ष ने शुरू किया तो चंद नेताओं ने इस घटना को अपनी जाति का असल रहनुमा होने के अवसर पर देखा. पर अब जब मुख्य आरोपी सहित पांच की गिरफ्तारी के बाद यह खुलासा हो गया है कि यह जातीय नहीं बल्कि ठेकेदारी विवाद में वर्चस्व का संघर्ष था तो बिहार ने एक बार फिर चैन की सांस ली.