Delhi Food Outlets: पुरानी दिल्ली का चांदनी चौक इलाका ऐतिहासिक है तो यहां पर बना हुआ टाउन हाल अंग्रेजों की देन है. वर्ष 1866 में यह इमारत यूरोपियन क्लब के तौर पर बनाई गई थी. भारत को आजादी मिलने तक यह इमारत अंग्रेजों का मनोरंजन स्थल रही. वर्ष 1968 में दिल्ली नगर निगम का गठन हुआ तो टाउन हाल को ही निगम मुख्यालय बनाने का निर्णय लिया गया है. इसके करीब पांच साल बाद ही इस इमारत की दीवार से लगकर एक युवक ने साइकल पर छोले-कुलचे बेचने शुरू किए. सालों बाद यह छोले-कुलचे आज भी बेचे जा रहे हैं और बेचने वाला युवक अब बुजुर्ग हो चुका है. लेकिन उसके छोले-कुलचे आज भी स्वाद के मामले में ‘जवान’ हैं. छोले-कुलचे का ठिया दोपहर को मात्र तीन घंटे ही निपट जाता है. आज हम इस बंदे के छोले-कुलचे की कहानी से आपको रूबरू करा रहे हैं.
डिश का है स्वाद घर जैसा
चांदनी चौक में प्रवेश करेंगे तो करीब 900 मीटर के बाद दायीं ओर टाउन हाल है. इस इमारत की बगल से लगते हुए एक सड़क गुजरती है. बस यहीं, इस इमारत की दीवार से लगकर एक बुजुर्ग साइकिल पर छोले-कुलचे लेकर आता है और बिना किसी तामझाम के अपना माल बेचता है. उसने अपना कोई बैनर या बोर्ड नहीं लगाया हुआ है, लेकिन पूरे इलाके के लोग इसे ‘लक्ष्मण छोले वाला’ के नाम से जानते हैं. बेचने वाले ने सालों के तजुर्बें से साइकल को ठिए में तब्दील कर दिया. हैंडल के पास एक बड़ा सा डिब्बा है, जिसमें कुलचे व भटूरे भरकर लाए जाते हैं तो साइकिल के पीछे कैरियर पर एक छोले का भगोना सेट कर रखा है, जिसके नीचे कोयले जलाने की सिगड़ी (चूल्हानुमा) है.
इस ठिए पर सालों से एक ही तरह से छोले-कुलचे परोसे जा रहे हैं.
दीवार पर भी एक छोटी सी सिगड़ी जला दी जाती है, जिस पर भटूरे गर्म किए जाते हैं. लक्ष्मण दास के वहां पहुंचते ही खाने वाले भी पहुंच जाते हैं. इस सालों पुराने छोले-कुलचे की बस एक ही विशेषता है कि आपको खाते वक्त लगेगा ही नहीं, आप बाजार की कोई डिश खा रहे हैं. ऐसा लगेगा कि यह डिश जैसे आपने अपने घर की बनी हुई है. उसका कारण भी हम आपको बताएंगे.
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खास मसालों से तैयार होते हैं छोले
इस ठिए पर सालों से एक ही तरह से छोले-कुलचे परोसे जा रहे हैं. एक दोने छोले डाले जाते हैं. कुलचे या भठूरे को अखबार के कागज के ऊपर रखकर दिया जाता है. छोलों में मसाला वगैरह उसे घर पर पकाते हुए डाल दिया जाता है, ताकि स्वाद उभर आए. हां अलग से एक दोने में नमक जरूर होता है, लेकिन उसकी जरूरत लोगों को बहुत कम होती है. छोलों के ऊपर कतरी हुई प्याज रखी होती है. अगर तीखा खाने का मन है तो एक थैली में हरी मिर्च होगी, आप उसे खा सकते हैं. कुलचे तो बाजार से ताजे खरीदे जाते हैं, लेकिन भटूरे भी घर से बनाकर लाए जाते हैं. लोगों के ऑर्डर पर उन्हें सिगड़ी पर सेंककर दिया जाता है.
मात्र 20 रुपये में छोले-कुलचे या छोले-भटूरे खाए जा सकते हैं.
साइकल के पास एक अपनापन सा माहौल रहता है. लोग सालों से खाने आ रहे हैं. पहले जब 2011 तक निगम मुख्यालय टाउन हॉल ही में था, तो एमसीडी कर्मचारी भी छोले-कुलचे खाने के लिए जुटते थे. मात्र 20 रुपये में छोले-कुलचे या छोले-भटूरे खाए जा सकते हैं. तीन घंटे में ही मात्र सब कुछ निपट जाता है और यह बुजुर्ग साइकिल लेकर निकल जाते हैं.
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1973 से बेच रहे हैं छोले
साइकिल पर छोले बेचने का ठिया लक्ष्मणदास ने वर्ष 1973 में लगाना शुरू किया था. तब उनकी उम्र 25 साल थी, आज 74 साल की उम्र में भी वह साइकिल लेकर लोगों को छोले-कुलचे खिलाने के लिए आ रहे हैं. वह छोलों के लिए रोज अपने हाथ से मसालों को पीसते हैं और स्वादिष्ट छोलों को बनाते हैं. बिटिया कहती है कि बाबुजी, पूरे हफ्ते का मसाला पीस लो, लेकिन वह कहते हैं कि इससे वो स्वाद नहीं आएगा. वह खुद ही घर पर भटूरे भी बनाते हैं. दोपहर एक बजे उनका साइकिल वाला ठिया सज जाता है और चार बजे तक सारा माल खत्म हो जाता है. रविवार को अवकाश रहता है.
नजदीकी मेट्रो स्टेशन: चांदनी चौक
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